बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद
बुद्धिवाद का प्रत्येक काल में विशिष्ट स्थान रहा है। प्राचीन समय में यह सिनिकवाद तथा स्टोइकवाद के रूप में जाना जाता था। आधुनिक युग में बुद्धिवाद का प्रतिपादन काण्ट के कठोरतावाद के रूप में किया गया। मध्यकाल में बुद्धिवाद ईसाई वैराग्यवाद के रूप में प्रस्तुत हुआ।
मध्यकाल में बुद्धिवाद का प्रतिपादन ईसाई वैराग्यवाद के रूप में हुआ। मध्यकाल के कुछ ईसाई सन्तों ने ईसा की शिक्षाओं को स्वीकार कर वैराग्यवाद का प्रतिपादन किया। ईसा ने व्यक्ति के लिए ये बातें महत्वपूर्ण बताई जैसे दैन्य, इन्द्रिय निरोध, त्याग, कष्टों की सहनशीलता आदि। परन्तु एक बात यह महत्वपूर्ण है कि इस सिद्धान्त ने कभी भी व्यक्ति के स्वाभाविक सुखों की अवहेलना नहीं की। इसी कारण ईसा ने व्यक्ति के लिए आन्तरिक शुद्धता को महत्वपूर्ण माना। ईसा की इन शिक्षाओं के आधार पर मध्यकाल के अनेक ईसाई सन्तों ने घोर कठोरतावाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया।
इस सिद्धान्त को मानने वाले बहुत कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वे हर प्रकार के सुख का पूर्ण त्याग कर देते थे। ये सन्त नोंद में रहते थे। काँटों पर सोते थे। अपनी पीठ पर क्रॉस लगाये रहते थे। कुछ सन्त स्वयं को कोड़े मारते थे। इन सन्तों के अनुसार शरीर को अधिक कष्ट देने से आत्मा का विकास होता है। उनकी मान्यता आत्मा के सिद्धान्त पर आधारित थी। इस मान्यता के कारण पलायनवाद का जन्म हुआ। इस आधार पर यह माना जाने लगा कि जगत आत्मा का वास्तविक स्थान नहीं है। व्यक्ति को इस जगत में रहते हुए आत्मा को अपने असली स्थान पर जाने के लिए तैयारी करनी है। इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की गई।
आलोचना - इस सिद्धान्त में बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद का वर्णन किया गया। इस सिद्धान्त में ईसा की महान शिक्षाओं को आधार बनाया गया परन्तु इस सिद्धान्त में ईसा की शिक्षाओं की एकांगी व्याख्या की गई। इस प्रकार से विकसित कठोरतावाद भले ही व्यक्ति के अपने विकास के लिए सहायक हो परन्तु समाज इसे नहीं मान सकता।
इस सिद्धान्त के आधार पर व्यक्ति अगर जीवन जीता है तो वह सामान्य जीवन न होकर असामान्य जीवन होगा। यदि समाज में इस प्रकार असामान्य जीवन व्यतीत करने वालों की संख्या बढ़ जाए तो न तो समाज विकास कर सकता है और न ही व्यक्ति सामान्य जीवन जी सकता है। वास्तव में व्यक्ति चाहे कितना भी बुद्धिमान हो लेकिन इस तथ्य की अवहेलना नहीं की जा सकती कि व्यक्ति भावनाहीन है। व्यक्ति के जीवन में भावनाओं का भी विशेष महत्व है। अतः भावनाओं तथा बौद्धिक क्षमताओं का विकास साथ-साथ होना चाहिए। यदि व्यक्ति मात्र एकाँगी जीवन व्यतीत करता है तो व्यक्ति पाश्विकता, व्यभिचार, हिंसा तथा असामान्यता में वृद्धि करता है। इसी कारण मध्यकालीन ईसाई वैराग्यवाद को अधिक लोकप्रियता प्रदान नहीं हुई।
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